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Saturday, 19 March 2016

300 रुपये कमाने वाला कैसे बना अरबो का मालिक – धीरूभाई अंबानी






कुछ लोग सिल्वर स्पून के साथ जन्म लेते हैं तो कुछ अपनी मेहनत से जीवन को आदर्श बना दते हैं और वही बाकि लोगो के लिए प्रेरणा बनते है ऐसी ही शख्सियतों में एक नाम स्व. धीरूभाई अंबानी का भी आता है।

ये कहानी है संघर्ष की जो हर किसी को जीवन में कही न कही, कभी न कभी करना पड़ता है ये कहानी है धीरूभाई हीराचंद अंबानी की एक business tycoon की जिसने अपनी मेहनत के दम पर भारत ही नहीं पुरे विश्व में अपना और भारत का परचम लहराया। गुजरात के एक छोटे से गांव चोरवाड से निकल के धीरूभाई ने जो साम्राज्य स्थापित किया उसने हर किसी को हैरत में डाल दिया ! धीरूभाई अंबानी का जन्म 28 दिसंबर 1932 को हुआ। उनके पिता हीराचंद गोवरधनदास अंबानी एक स्कूल में शिक्षक थे धीरूभाई ने बालपन में ही घर की आर्थिक मदद करनी शुरू कर दी थी। इस समय वे गिरनार के पास भजिये की दुकान लगाया करते थे ! 1949 में महज १6 साल की उम्र में वो यमन चले गए और वहाँ उन्होंने A. Besse & Co. के साथ ३०० रुपये की मासिक सैलरी पर काम किया | 1952 में, धीरुभाई भारत वापस आ गए और 15000.00 की पूंजी के साथ (Reliance Commercial Corporation) की शुरुआत की और यहीं से शुरू हुई उनकी व्यावसायिक यात्रा। यह एक टेलीफोन, एक मेज़ और तीन कुर्सियों के साथ एक 350 वर्ग फुट का कमरा था। आरंभ में, उनके व्यवसाय में मदद के लिए दो सहायक थे। 1954 में, चंपकलाल दिमानी और धीरुभाई अंबानी की साझेदारी खत्म हो गयी और धीरुभाई ने स्वयं शुरुआत की. यह माना जाता है की दोनों के स्वभाव अलग थे और व्यवसाय कैसे किया जाए इस पर अलग राय थी।equity cult भारत में प्रारम्भ करने का श्रेय भी धीरुभाई जाता है धीरुभाई गुजरात के ग्रामीण लोगों को समझाया कि अगर वो Reliance पर पैसा लगते है तो उन्हें ही फायदा होगा | Reliance एक मात्र ऐसी कंपनी थी जिसकी वार्षिक बैठके भी क्रिकेट स्टेडियम Cross मैदान पर हुई होती थी जिसमे 35,000 शेयरधारक भाग लेते थे।

दोस्तों ऐसा नहीं है की धीरू भाई को शिखर तक पहूचने कोई परेशानी नहीं हुई उन्हें भी कई परेशानियों का सामना करना पड़ा ! जितनी जल्दी धीरूभाई ऊपर जा रहे थे उससे कई लोगो को प्रॉब्लम होने लगी उनमे से एक थे नसली वाडिया और धीरूभाई के दोस्त रामनाथ गोएंका ! नसली वाडिया एक समय में धीरुभाई और रिलायंस उद्योग के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी थे नसली वाडिया की पहुच राजनितिक की बड़ी हस्तियों तक थी और वो समय समय पर धीरूभाई के लिए परेशानिया खड़ी करते रहे ! रामनाथ गोयनका नसली वाडिया के भी करीब थे कई मौकों पर, रामनाथ गोएंका दोनों लड़ने वाले गुटों के बीच हस्तक्षेप करने की कोशिश करते थे ताकि दुश्मनी का अंत किया जाए।

रामनाथ गोयंका धीरूभाई से कुछ बातों के लेकर असहमत थे और ये बात आगे चल कर मनमुटाव का कारण बनी और मनमुटाव इतना बड़ा की दोस्ती दुश्मनी में बदल गयी ! रामनाथ गोयंका ने खुल कर नसली वाडिया का समर्थन किया ! दुश्मनी इस हद तक बढ़ चुकी थी कि रामनाथ गोयंका ने एक बार कहा ‘नसली एक अँगरेज़ आदमी है .वे अंबानी को संभाल नही सके. मैं एक बनिया हूँ मैं जानता हूँ कि कैसे ख़त्म करना है”….

रामनाथ गोयंका का एक News paper निकलता था इंडियन एक्सप्रेस उसमे बस धीरूभाई अम्बानी की खबर छापने लगी थी जो ये दावा करती थीं कि धीरुभाई अनैतिक व्यवसायिक पद्धतियों का प्रयोग अधिकाधिक मुनाफे को बढ़ने के लिए कर रहे हैं। रमानाथ गोएंका इंडियन एक्सप्रेस में अपने कर्मचारियों को इस मामले कि तहकिकात के लिए इस्तेमाल नही करते थे बल्कि उन्होंने इसके लिए अलग से अपने एक करीबी एस. गुरुमूर्ति को रखा जिसका काम धीरूभाई की गतिविधियों पर नज़र रख कर खबरे बनाने का था।

अब रामनाथ गोयंका ने सरकार पर भी आरोप लगने लगे की सरकार धीरूभाई का सपोर्ट कर रही है धीरूभाई ने जो सम्पत्ति अनैतिक तरीको से कमाई है वो उसके लिए धीरू भाई को दण्डित नहीं कर रही है ग्यानी जेल सिंह भारत के सातवें राष्ट्रपति थे। गुरुमूर्ति ग्यानी जेल सिंह के साथ रहे और उनकी तरफ़ से प्रधानमंत्री को एक प्रतिकूल फर्जी पत्र लिखा | जैल सिंह ने राजीव गाँधी को पत्र भेजने से पहले ही पत्र में correction कर दिए थे । इस बात से बेखबर रामनाथ गोयंका ने वो फर्जी पत्र इंडियन एक्सप्रेस में छाप दिया । बिना ये जाने की राष्ट्रपति ने उसमे correction किये है अब लड़ाई रामनाथ गोयंका की धीरूभाई से हटकर प्रधनमंत्री और रामनाथ गोयंका के बीच की हो गयी और धीरूभाई इसमें से बड़ी ही चतुराई से इसमें से अलग हो गए।

धीरूभाई से जुडी ये कुछ घटनाये है जो हमें सिखाती है की मुश्किलो का सामना कैसे किया जाये ! दुनिया में शायद कोई ही हो जिसे मुश्किलो का सामना न करना पड़ा हो। . और जो मुश्किलो का डट के मुकाबला करता है वो धीरूभाई बनता है । दोस्तों धीरूभाई कहते थे “ धीरुभाई एक दिन चला जाएगा. पर रिलायंस के कर्मचारी और शेयरधारक इसे चलाते रहेंगे/ बचाए रखेंगे. रिलायंस अब एक ऐसी अवधारण है जहाँ पर अब अंबानी अप्रासंगिक हो गए हैं। “

एक major stroke के बाद धीरुभाई अंबानी को मुंबई के ब्रेच कैंडी अस्पताल में 24 जून, 2002 को भर्ती किया गया। धीरूभाई 6 जुलाई (July 6), 2002 की रात को हमें छोड़ के चले गए उनके अन्तिम संस्कार न केवल व्यापारियों, राजनीतिज्ञों और मशहूर हस्तियों ने शिरकत की बल्कि हजारों आम लोगों ने भी भाग लिया। धीरुभाई के मरने के समय, रिल्यांस समूह की सालाना राशि रूपये (Rs.) 75,000 करोड़ या USD $ 15 बिलियन. धीरुभाई ने ये व्यवसाय केवल 15, 000(US$350) रूपये (Rs.) से शुरू की थी।
धीरू भाई अपने पीछे एक बहुत बड़ी विरासत छोड़ गए अब उससे उनके बेटे मुकेश और अनिल सँभालते है

मजदूरी करने वाला कैसे बना IAS जाने…Struggle




किसी चीज़ को पाने के लिए पूरी शिद्दत के साथ कोशिश कि जाये तो मानकर चलिए आपको कामयाब होने से कोई भी नहीं रोक सकता । इसका उदहारण है संजय अखाड़े । महाराष्ट्र के नासिक जिले के संजय अखाड़े घोर विपन्नता के बावजूद IAS बनने में कामयाब रहे । संजय दृढ़ निश्चय कि जीती जागती मिशाल है । नासिक के मखमलाबाद रोड कि तंग गलियो में बना एक घर, जहा गरीबी, विपन्नता पसरी हुई है जहाँ मुलभुत सुविधाओ का अभाव है उसी गंदे से घर कि चारदीवारी में कुली के बेटे के रूप में जन्मे मेधावी संजय । माँ महीने के तीस दिन आधे पेट रहकर फैक्ट्री में बीड़ी बनती, तब उम्मीद बांधती कि काम से काम बच्चे चाय में डुबोकर डबल रोटी तो खा ही लेंगे । पिता का कोई कसूर नहीं । स्टेशन पर कुली का काम कर रहे और बोरियां उठाते उठाते वह ये भी भूल जाता है कि देर हुई तो बच्चे आज भी भूखे पेट ही सोयेंगे । माता- पिता कि ऐसी हालत देख संजय बचपन से मजदूरी करने लगे ।

कई सालो तक संजय होटलों में टेबल साफ करने, मेडिकल कि दुकान में काम करके, अख़बार बांटकर और STD कि दुकान पर बैठकर अपनी पिता का साथ दिया। पिता ने स्कूल में भी डाला तो इस मकसद से कि वो दिन भर में मिली मजदूरी को गिन सके । लेकिन संजय तो जैसे बने ही कुछ ख़ास करने के लिए थे । स्कूल में मन लगा कर पढ़ते और बाकि बचे समय में मजदूरी कर खुद का पेट पालते । वे खाने पहनने में लोगो से जरूर पीछे रहे लेकिन स्कूल में मन लगाकर पढ़ते में सबसे अव्वल रहे । हर कक्षा में उनका पहला स्थान पक्का था ।संजय मराठी के आलावा कोई भाषा नहीं जानते थे । ऐसे में सुबह बाँटने के बाद बचे हुए अंग्रेजी अखबारों को पढ़कर अपनी अंग्रेजी सुधारी । मुसीबतों से जुझते हुए संजय ने Graduation कि पढाई पूरी कि । और फिर प्रतियोगी परीक्षाओ कि तैयारी में जुट गए । सात दिन मजदूरी करने के बाद जो वक़्त मिलता था संजय उसका पूरी ईमानदारी से इस्तमाल करते । बकौल संजय ” मैंने संघर्ष के दिनों में एक मिनट भी बर्बाद नहीं किया । मै जनता था अगर मैंने वक़्त कि कीमत नहीं पहचानी, तो वक़्त भी मुझे नहीं पहचानेगा ।”
संजय कहते है ‘शुरु-शुरु मे मै हैं भावना से ग्रसित था न मैं दिखने मै अच्छा न मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि मजबूत थी और न ही मुझे अंग्रेजी बोलना आती थी । ऐसे मै होशियार छात्रों का सामना कैसे करूँगा ? लेकिन ज्यो ज्यो पढाई करता गया मेरे आत्मविश्वास के आगे सारी कमियाँ न जाने कहाँ गायब हो गई’ इसी दौरान संजय को मार्गदर्शक के रूप मे पुणे के IAS अविनाश धर्माधिकारी मिले । उन्होंने संजय का न केवल हौसला बढ़ाया, बल्कि कहींग भी कराइ । संजय कि म्हणत और अविनाश का मार्गदर्शन रंग लाया । और संजय संघ लोक सेवा आयोग कि परीक्षा मे सफल हो गई संजय अब आईएएस बन चुके है ।

संजय कहते है ” हालत कितने ही बुरे हो घनघोर गरीबी हो । बावजूद इसके आपकी विल पावर मजबूत हो, आपको हर हाल मे सफल होने कि सनक हो, तो दुनिया कि कोई ताकत आपको कामयाब होने से नहीं रोक सकती । इसलिए मित्रों उठो, जागो और तब तक चैन सिमट बैठो जब तक तुम कामयाब नहीं हो जाओ।’

Thursday, 17 March 2016

रिक्शेवाले का बेटा बना IAS officer !


   

अगर career के point of view से देखा जाए तो India में थ्री आइज़ (3 Is) का कोई मुकाबला नही:

IIT,IIM, और IAS. लेकिन इन तीनो में IAS का रुतबा सबसे अधिक है . हर साल लाखों परीक्षार्थी IAS officer बनने की चाह में Civil Services के exam में बैठते हैं पर इनमे से 0.025 percent से भी कम लोग IAS officer बन पाते हैं . आप आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि IAS beat करना कितना मुश्किल काम है , और ऐसे में जो कोई भी इस exam को clear करता है उसके लिए अपने आप ही मन में एक अलग image बन जाती है . और जब ऐसा करने वाला किसी बहुत ही साधारण background से हो तो उसके लिए मन में और भी respect आना स्वाभाविक है .

ये कहानी है Govind Jaiswal की , गोविन्द के पिता एक रिक्शा -चालक थे , बनारस की तंग गलियों में , एक 12 by 8 के किराए के कमरे में रहने वाला गोविन्द का परिवार बड़ी मुश्किल से अपना गुजरा कर पाता था . ऊपर से ये कमरा ऐसी जगह था जहाँ शोर -गुल की कोई कमी नहीं थी , अगल-बगल मौजूद फक्ट्रियों और जनरेटरों  के शोर में एक दूसरे से बात करना भी मुश्किल था .

नहाने -धोने से लेकर खाने -पीने तक का सारा काम इसी छोटी सी जगह में Govind , उनके माता -पिता और दो बहने करती थीं . पर ऐसी परिस्थिति में भी गोविन्द ने शुरू से पढाई पर पूरा ध्यान  दिया .अपनी पढाई और किताबों का खर्चा निकालने के लिए वो class 8 से ही tuition पढ़ाने  लगे . बचपन से एक असैक्षिक माहौल में रहने वाले गोविन्द को पढाई लिखाई करने पर लोगों के ताने सुनने पड़ते थे . “ चाहे तुम जितना पढ़ लो चलाना तो रिक्शा ही है ” पर गोविन्द इन सब के बावजूद पढाई में जुटे रहते . उनका कहना है . “ मुझे divert करना असंभव था .अगर कोई मुझे demoralize करता तो मैं अपनी struggling family के बारे में सोचने  लगता .”

आस – पास के शोर से बचने के लिए वो अपने कानो में रुई लगा लेते , और ऐसे वक़्त जब disturbance ज्यादा होती तब Maths लगाते , और जब कुछ शांती होती तो अन्य subjects पढ़ते .रात में पढाई के लिए अक्सर उन्हें मोमबत्ती, ढेबरी , इत्यादि का सहारा लेना पड़ता क्योंकि उनके इलाके में १२-१४ घंटे बिजली कटौती रहती.

चूँकि वो शुरू से school topper रहे थे और Science subjects में काफी तेज थे इसलिए Class 12 के बाद कई लोगों ने उन्हें Engineering करने की सलाह दी ,. उनके मन में भी एक बार यह विचार आया , लेकिन जब पता चला की Application form की fees ही 500 रुपये है तो उन्होंने ये idea drop कर दिया , और BHU से अपनी graduation करने लगे , जहाँ सिर्फ 10 रूपये की औपचारिक fees थी .

Govind अपने IAS अफसर बनने के सपने को साकार करने के लिए पढ़ाई कर रहे थे और final preparation के लिए Delhi चले गए लेकिन उसी दौरान उनके पिता के पैरों में एक गहरा घाव हो गया और वो बेरोजगार हो गए . ऐसे में परिवार ने अपनी एक मात्र सम्पत्ती , एक छोटी सी जमीन को 30,000 रुपये में बेच दिया ताकि Govind अपनी coaching पूरी कर सके . और Govind ने भी उन्हें निराश नहीं किया , 24 साल की उम्र में अपने पहले ही attempt में (Year 2006) 474 सफल candidates में 48 वाँ स्थान लाकर उन्होंने अपनी और अपने परिवार की ज़िन्दगी हमेशा -हमेशा के लिए बदल  दी .

Maths पर command होने के बावजूद उन्होंने mains के लिए Philosophy और History choose किया , और प्रारंभ से इनका अध्यन किया ,उनका कहना है कि , “ इस दुनिया में कोई भी subject कठिन नहीं है , बस आपके अनादर उसे crack करने की will-power होनी  चाहिए .”

अंग्रेजी का अधिक ज्ञान ना होने पर उनका कहना था , “ भाषा कोई परेशानी नहीं है , बस आत्मव्श्वास की ज़रुरत है . मेरी हिंदी में  पढने और व्यक्त करने की क्षमता ने मुझे achiever बनाया .अगर आप अपने विचार व्यक्त करने में confident हैं तो कोई भी आपको सफल होने से नहीं रोक सकता .कोई भी भाषा inferior या superior नहीं होती . ये महज society द्वारा बनाया गया एक perception है .भाषा सीखना कोई बड़ी बात नहीं है – खुद पर भरोसा रखो . पहले मैं सिर्फ हिंदी जानता था ,IAS academy में मैंने English पर अपनी पकड़ मजबूत की . हमारी दुनिया horizontal है —ये तो लोगों का perception है जो इसे vertical बनता है , और वो किसी को inferior तो किसी को superior बना देते हैं .”

गोविन्द जी की यह सफलता दर्शाती है की कितने ही आभाव क्यों ना हो यदि दृढ संकल्प और  कड़ी मेहनत से कोई अपने लक्ष्य -प्राप्ति में जुट जाए तो उसे सफलता ज़रूर मिलती है . आज उन्हें IAS officer बने 5 साल हो चुके हैं पर उनके संघर्ष की कहानी हमेशा हमें प्रेरित करती  रहेगी .

Shuchita Kishor, IAS Topper 2010: You are all alone at some point during the struggle




Shuchita’s is the story of an ordinary but determined girl. Drawing her inspiration from the interviews of IAS toppers and closely following their advice, this young woman from Lucknow finally realised her dream of becoming a civil servant in her third attempt. Shuchita means pure, simple and honest. That’s exactly how this slim and tall young woman of 27 comes across as she makes an effort to smile in front of the camera. Thoughtful and composed in her Salwar Kurta, the 39th ranker in the UPSC Civil Services exam 2010 opines that diplomacy must precede military action as she hopes to become an IFS officer.

One of the four daughters of retired UP government official Mr RK Srivastava, Shuchita could not clear the Prelims in her first attempt at the UPSC due to lack of proper guidance. The second attempt was encouraging as she managed to reach the interview stage. Finally in 2011, Shuchita’s efforts paid off as she secured 39th rank in the Civil Services exam 2010. The hard work clearly reflects in her eyes as she recalls, “It was not that easy to go in for three consecutive attempts but I derived strength from my belief in God.”

As she pursues her PhD in English Literature from Jawaharlal Nehru University in New Delhi, Shuchita takes pride in showing the copies of IAS interviews that she read way back in 2004 in Jagran Josh. The young diplomat in the making first decided to be a civil servant when she was in class 7 and considers 1996 UPSC topper Mr Iqbal Singh Dhaliwal and 2005 UPSC topper Mona Pruthi her role models. Shuchita loves reading literature and quizzing is her favourite hobby.

Education

Shuchita Kishore went through schooling in Lucknow where she scored 89% and 86% in her class 10 and 12 exams. She then joined Lucknow University from where she completed her BA in Political Science and English Literature with 67%. On graduating from the Lucknow University, she moved to New Delhi to do her Masters in English Literature from JNU. She is currently pursuing her PhD from the JNU itself, the library of which is popularly known as the UPSC hall. Shuchita recognises the importance of educational institutions known for excellence but does not shy away from saying, “It’s not the institutions that make individuals. It’s the people who make institutions.”

Advice to IAS aspirants

Quoting Rig-Veda, Shuchita says, “Let noble thoughts come to us from all sides.” She also identifies with Gandhi’s talisman as she understands the importance of a civil servant whose decisions can affect the entire nation in some way or the other. Shuchita has a word of advice for IAS aspirants as she suggests, “Think about the nation. Try to develop a vision. Never lose hope and with strong determination and hard work, there is nothing that will stop you from succeeding in UPSC exam and life.” She further adds, “You could well be the first person from your school or college to crack the Civil Services exam.”

Wednesday, 16 March 2016

बिना कोचिंग, बिना गाइडेंस बनी IAS




मई महीने की 3 तारीख को रोज की तरह वंदना दोपहर में अपने दो मंजिला घर में ही ग्राउंड फ्लोर पर बने अपने पिताजी के ऑफिस में गई और आदतन सबसे पहले यूपीएससी की वेबसाइट खोली. वंदना को दूर-दूर तक अंदाजा नहीं था कि आज आईएएस का रिजल्ट आने वाला है. लेकिन इस सरप्राइज से ज्यादा बड़ा सरप्राइज अभी उसका इंतजार कर रहा था. टॉपर्स की लिस्ट देखते हुए अचानक आठवें नंबर पर उसकी नजर रुक गई. आठवीं रैंक. नाम- वंदना. रोल नंबर-029178. बार-बार नाम और रोल नंबर मिलाती और खुद को यह यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह मैं ही हूं. हां, वह वंदना ही थी. भारतीय सिविल सेवा परीक्षा 2012 में आठवां स्थान और हिंदी माध्यम से पहला स्थान पाने वाली 24 साल की एक लड़की.

वंदना की आंखों में इंटरव्यू का दिन घूम गया. हल्के पर्पल कलर की साड़ी में औसत कद की एक बहुत दुबली-पतली सी लड़की यूपीएससी की बिल्डिंग में इंटरव्यू के लिए पहुंची. शुरू में थोड़ा डर लगा था, लेकिन फिर आधे घंटे तक चले इंटरव्यू में हर सवाल का आत्मविश्वास और हिम्मत से सामना किया. बाहर निकलते हुए वंदना खुश थी. लेकिन उस दिन भी घर लौटकर उन्होंने आराम नहीं किया. किताबें उठाईं और अगली आइएएस परीक्षा की तैयारी में जुट गईं.
यह रिजल्ट वंदना के लिए तो आश्चर्य ही था. यह पहली कोशिश थी. कोई कोचिंग नहीं, कोई गाइडेंस नहीं. कोई पढ़ाने, समझने, बताने वाला नहीं. आइएएस की तैयारी कर रहा कोई दोस्त नहीं. यहां तक कि वंदना कभी एक किताब खरीदने भी अपने घर से बाहर नहीं गईं. किसी तपस्वी साधु की तरह एक साल तक अपने कमरे में बंद होकर सिर्फ और सिर्फ पढ़ती रहीं. उन्हें तो अपने घर का रास्ता और मुहल्ले की गलियां भी ठीक से नहीं मालूम. कोई घर का रास्ता पूछे तो वे नहीं बता पातीं. अर्जुन की तरह वंदना को सिर्फ चिड़िया की आंख मालूम है. वे कहती हैं, ‘‘बस, यही थी मेरी मंजिल.’’

वंदना का जन्म 4 अप्रैल, 1989 को हरियाणा के नसरुल्लागढ़ गांव के एक बेहद पारंपरिक परिवार में हुआ. उनके घर में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं था. उनकी पहली पीढ़ी की कोई लड़की स्कूल नहीं गई थी. वंदना की शुरुआती पढ़ाई भी गांव के सरकारी स्कूल में हुई. वंदना के पिता महिपाल सिंह चौहान कहते हैं, ‘‘गांव में स्कूल अच्छा नहीं था. इसलिए अपने बड़े लड़के को मैंने पढऩे के लिए बाहर भेजा. बस, उस दिन के बाद से वंदना की भी एक ही रट थी. मुझे कब भेजोगे पढऩे.’’

महिपाल सिंह बताते हैं कि शुरू में तो मुझे भी यही लगता था कि लड़की है, इसे ज्यादा पढ़ाने की क्या जरूरत. लेकिन मेधावी बिटिया की लगन और पढ़ाई के जज्बे ने उन्हें मजबूर कर दिया. वंदना ने एक दिन अपने पिता से गुस्से में कहा, ‘‘मैं लड़की हूं, इसीलिए मुझे पढऩे नहीं भेज रहे.’’ महिपाल सिंह कहते हैं, ‘‘बस, यही बात मेरे कलेजे में चुभ गई. मैंने सोच लिया कि मैं बिटिया को पढ़ने बाहर भेजूंगा.’’

छठी क्लास के बाद वंदना मुरादाबाद के पास लड़कियों के एक गुरुकुल में पढऩे चली गई. वहां के नियम बड़े कठोर थे. कड़े अनुशासन में रहना पड़ता. खुद ही अपने कपड़े धोना, कमरे की सफाई करना और यहां तक कि महीने में दो बार खाना बनाने में भी मदद करनी पड़ती थी. हरियाणा के एक पिछड़े गांव से बेटी को बाहर पढऩे भेजने का फैसला महिपाल सिंह के लिए भी आसान नहीं था. वंदना के दादा, ताया, चाचा और परिवार के तमाम पुरुष इस फैसले के खिलाफ थे. वे कहते हैं, ‘‘मैंने सबका गुस्सा झेला, सबकी नजरों में बुरा बना, लेकिन अपना फैसला नहीं बदला.’’

दसवीं के बाद ही वंदना की मंजिल तय हो चुकी थी. उस उम्र से ही वे कॉम्प्टीटिव मैग्जीन में टॉपर्स के इंटरव्यू पढ़तीं और उसकी कटिंग अपने पास रखतीं. किताबों की लिस्ट बनातीं. कभी भाई से कहकर तो कभी ऑनलाइन किताबें मंगवाती. बारहवीं तक गुरुकुल में पढ़ने के बाद वंदना ने घर पर रहकर ही लॉ की पढ़ाई की. कभी कॉलेज नहीं गई. परीक्षा देने के लिए भी पिताजी साथ लेकर जाते थे.

गुरुकुल में सीखा हुआ अनुशासन एक साल तैयारी के दौरान काम आया. रोज तकरीबन 12-14 घंटे पढ़ाई करती. नींद आने लगती तो चलते-चलते पढ़ती थी. वंदना की मां मिथिलेश कहती हैं, ‘‘पूरी गर्मियां वंदना ने अपने कमरे में कूलर नहीं लगाने दिया. कहती थी, ठंडक और आराम में नींद आती है.’’ वंदना गर्मी और पसीने में ही पढ़ती रहती ताकि नींद न आए. एक साल तक घर के लोगों को भी उसके होने का आभास नहीं था. मानो वह घर में मौजूद ही न हो. किसी को उसे डिस्टर्ब करने की इजाजत नहीं थी. बड़े भाई की तीन साल की बेटी को भी नहीं. वंदना के साथ-साथ घर के सभी लोग सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे थे. उनकी वही दुनिया थी.

आईएएस नहीं तो क्या? ‘‘कुछ नहीं. किसी दूसरे विकल्प के बारे में कभी सोचा ही नहीं.’’ वंदना की वही दुनिया थी. वही स्वप्न और वही मंजिल. उन्होंने बाहर की दुनिया कभी देखी ही नहीं. कभी हरियाणा के बाहर कदम नहीं रखा. कभी सिनेमा हॉल में कोई फिल्म नहीं देखी. कभी किसी पार्क और रेस्तरां में खाना नहीं खाया. कभी दोस्तों के साथ पार्टी नहीं की. कभी कोई बॉयफ्रेंड नहीं रहा. कभी मनपसंद जींस-सैंडल की शॉपिंग नहीं की. अब जब मंजिल मिल गई है तो वंदना अपनी सारी इच्छाएं पूरी करना चाहती है. घुड़सवारी करना चाहती है और निशानेबाजी सीखना चाहती है. खूब घूमने की इच्छा है.

आज गांव के वही सारे लोग, जो कभी लड़की को पढ़ता देख मुंह बिचकाया करते थे, वंदना की सफलता पर गर्व से भरे हैं. कह रहे हैं, ‘‘लड़कियों को जरूर पढ़ाना चाहिए. बिटिया पढ़ेगी तो नाम रौशन करेगी.’’ यह कहते हुए महिपाल सिंह की आंखें भर आती हैं. वे कहते हैं, ‘‘लड़की जात की बहुत बेकद्री हुई है. इन्हें हमेशा दबाकर रखा. पढऩे नहीं दिया. अब इन लोगों को मौका मिलना चाहिए.’’ मौका मिलने पर लड़की क्या कर सकती है, वंदना ने करके दिखा ही दिया है.

IAS - Roman Saini - Motivational Hindi Story




उन्होंने मात्र 16 वर्ष की उम्र में मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण की और विश्वप्रसिद्ध अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एआईआईएमएस) में एक जूनियर रेजीडेंट डाॅक्टर के रूप में काम करने लगे। वे सिर्फ यहीं पर नहीं रुके और 22 वर्ष की उम्र में इन्होंने प्रतिष्ठित सिविल सेवाओं की परीक्षा को भी सफलतापूर्वक पार किया और एक आईएएस अधिकारी बन गए। और अब वे अपने उद्यमशीलता के प्रयास के माध्यम से समाज को वह सबकुछ वापस देने का प्रयास कर रहे हैं और संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा में बठने के इच्छुक युवाओं को निःशुल्क आॅनलाइन प्रशिक्षण उपलब्ध करवा रहे हैं।

मिलिये रोमन सैनी से। वे आज के उस आधुनिक भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सीमाओं से परे जा रहा हैं और सिर्फ योग्यता को मूल आधार मानते हुए सिर्फ दृढ़संकल्प से भरे हुए लोगों के लिये सबकुछ संभव बना रहा है।
रोमन कहते हैं, ‘‘मेरा ऐसा विश्वास है कि अगर हम वास्तव में कुछ किसी चीज को पाने की ठान लें तो हमारे लिये कुछ भी असंभव नहीं है। मैंने अपने लिये जीवन में पाने केभी लिये कोई बाहरी मानदंड तय नहीं किये। मैंने हमेशा से ही अपने मन की सुनी है और वह किया ह जो मुझे पसंद है। मैं गिटार सिर्फ इसलिये बजाता हूँ क्योंकि मुझे संगीत से प्यार है इसलिये नहीं कि मेरी ख्वाहिश इंग्लैंड के ट्रिनिटी काॅलेज में जाने की है। मेडिकल, सिविल सेवा और अब आॅनलाइन सामग्री के माध्यम से यूपीएससी की परीक्षा पास करने की उम्मीद रखने वाले लाखों लोगों की मदद करना-यह सबकुछ मेरी अंर्तरात्मा की आवाज है।’’

ऐसा हो भी क्यों ना? जयपुर के एक मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले रोमन अपने जीवन के सभी सपनों को पूरा करने में सिर्फ इसलिये सफल रहे क्योंकि उन्होंने जो भी किया वह पूरी तरह से दिल लगाकर किया। रोमन कहते हैं, ‘‘मेरे माता-पिता ने मुझे बहुत छोटी उम्र में ही मेरे हाल पर छोड़ दिया था क्योंकि मैं उनके साथ सामाजिक आयोजनों में नहीं आता-जाता था। यहां तक कि काफी लंबे समय तक मैं किसी पारिवारिक विवाह समारोह का हिस्सा नहीं बना। मेरे संपर्क में आने वाले रिश्तेदारों और मित्रों को अहसास हुआ कि मैं औरों से अलग हूँ, उनकी नजरों में शायद कुछ अजीब। और शायद वे काफी हद तक सही भी थे। मैं अपनी ही दुनिया में खोया रहता था और अपनी पसंद के काम करता था। मैं अपने जीवन में कहीं न कहीं जरूरी और गैरजरूरी के बीच के अंतर को पहचानने की क्षमता विकसित कर चुका था। इसी वजह से मैं अपने जीवन में ठीक कामों को सही तरीके से करने में सफल रहा।’’

‘‘स्कूल के दिनों में मेरी दिलचस्पी पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं थी और मैं एक बिल्कुल सामान्य छात्र था जिसे मेधावी तो बिल्कुल भी नहीं कह सकते थे। मेरा मत है कि स्कूल इत्यादि में उच्च अंक लाना बिल्कुल अनावश्यक है। मैं स्कूलों और काॅलेजों में सिर्फ परीक्षा को उत्तीर्ण करने वाली शिक्षा प्रणाली के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं हूँ। मैं मेडिकल की परीक्षा में सिर्फ इसलिये बैठा क्योंकि जीव विज्ञान ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा था और उससे संबंधित कुछ भी पढ़ना मुझे बेहद पसंद था। मुझे इसके काफी मजा आया और मैंने ऐसे ही परीक्षा भी दी। एआईआईएमएस के लिये चयनित होना विषय के प्रति मेरी रुची का ही एक बेहतरीन परिणाम था। इसी प्रकार यूपीएससी के दौरान भी मैंने सिर्फ विषयों का आनंद लेने की अपनी सहज-प्रवृत्ति का पालन किया।’’

आज रोमन अपनी उपलब्धियों को हर किसी के साथ साझा करना वाहते हैं। वे चाहते हैं कि हर कोई ऐसा करने में सक्षम हो जैसा उन्होंने किया है और उनका उद्यम इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे कहते हैं, ‘‘मैंने यूपीएससी की परीक्षा के हौव्वे को लोगों को दिलो-दिमाग से उतारने के लिये यह आॅनलाइन कार्यक्रम शुरू किया है। अगर आप इसे अच्दे तरीके से समझने में कामयाब रहें तो कोई भी इस वैतरणी को पार कर सकता है। ध्यान रखिये कि यह दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक है और जबतक आप अपने लिये निर्धारित लक्ष्य को प्यार नहीं करेंगे तबतक आप इसमें सफल नहीं हो सकते। आप इस परीक्षा को शक्ति, पैसे और पद के प्रवेश द्वार की तरह देखकर बिल्कुल भी न दें बल्कि सिर्फ इसलिये दें क्योंकि यह आपके जीवन के लिये एक वास्तविक अर्थ रखती है। यह एक कठिन प्रक्रिया है और यह आपकी मानसिक शक्ति का जैसी परीक्षण करती है वैसी और कोई परीक्षा नहीं लेती। किसी भी चुनौतीपूर्ण और कठिन पल में सिर्फ आपकी अंतरात्मा की आवाज ही आपको मार्गदर्शन देने वाली शक्ति होगी।’’

‘‘लगातार कुछ नया सीखने की जुस्तजू मुझे आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। चाहे जो भी स्थिति-परिस्थिति हो, मैं प्रत्येक क्षण हर किसी से कुछ न कुछ सीखता रहता हूँ। मैं सिर्फ ज्ञान का भूखा हूँ नई जानकारी लेने के लिये मैं कभी भी शर्म नहीं करता। यही भावना मुझे आगे बढ़ने में सहायता देती है।’’ रोमन इस बात से बहुत अधिक रोमांचित हैं कि एक आईएएस के तौर पर वे ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने में सफल रहेंगे और वहां के लोगों की समस्याओं से रूबरू होकर उनका समाधान करने में एक भूमिका निभा सकेंगे।

Saturday, 12 March 2016

Success Story




जब कुछ कर दिखाने के लिए इरादे बुलंद हों, तो विपरीत परिस्थितियों में भी राहें बनने लगती हैं। यह कथन कानपुर के जाजमऊ के रहने वाले सूरज सिंह परिहार पर सटीक बैठती हैं। परिस्थितियां प्रतिकूल थीं, इसके बावजूद सिविल सेवा परीक्षा में पास होने का दृढ़ निश्चय उनको इस मुकाम तक ले आया। आज सूरज ने सिविल सेवा परीक्षा में सफल होकर अपना स्थान पक्का कर लिया है। वर्तमान में दिल्ली स्थित कस्टम एंड एक्साइज डिपार्टमेंट में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत सूरज ने सफलता के सूत्र साझा किए। पेश है, उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश :
सिविल सर्विसेज में मिली इस सफलता पर कैसा लग रहा है?
मेरा और मेरे परिवार का सपना पूरा हो गया। मैंने आईएएस बनने का सपना देखा जरूर था, लेकिन पता नहीं था, कैसे पूरा होगा। परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। घर मैं पापा प्राइवेट सेक्टर से रिटायर्ड हैं। परिवार में मैं ही कमाता था। ग्रेजुएशन के बाद ही दिल्ली आ गया था और इंटरनेशनल बीपीओ में जॉब करने लगा। 2005 से 2007 तक बीपीओ में काम किया। उसके बाद 2008 से 2012 तक स्टेट बैंक ऑफ महाराष्ट्रा में पीओ की नौकरी की। जॉब के साथ तैयारी करना मुश्किल था और जॉब छोडऩा भी आसान नहीं था। फिर 2012 में एसएससी के द्वारा कस्टम एवं एक्साइज विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर चयन हुआ। आखिरकार जो चाहता था, वह मंजिल मिल ही गई।
यह आपका कौन-सा प्रयास था?
यह आईएएस का मेरा तीसरा प्रयास था। पहले प्रयास में मेरा चयन नहीं हुआ। दूसरे प्रयास में भी मैं इंटरव्यू तक पहुंचा। इस बार मुझे सफलता मिली।
मेन एग्जाम में अपने विषय के बारे में बताएं?
इसके लिए मैंने हिंदी साहित्य का चयन किया था।
तैयारी किस प्रकार की?
मैंने बीए और एमए की किताबों के अलावा एनसीईआरटी की किताबों से तैयारी की। सामान्य अध्ययन के लिए सेल्फ स्टडी की। हिंदी साहित्य के लिए दिल्ली स्थित दृष्टि - द विजन से कोचिंग ली। इंटरव्यू की बारीकियां कानपुर के एपेक्स इंस्टीट्यूट से सीखीं।
इंटरव्यू में किस तरह के सवाल पूछे गए थे?
मेरा इंटरव्यू प्रोफेसर डेविड सिंगली के बोर्ड में था। ओवर ऑल अच्छा गया था। डेविड सर साउथ से थे, इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में प्रश्न पूछे और मैंने भी अंग्रेजी में उनके उत्तर दिए। देश-दुनिया से संबंधित प्रश्न उन्होंने पूछे। तैयारी तो मेरी थी ही, इसलिए उनके जवाब देने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई।
अपनी शैक्षणिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएं?
मैंने कानपुर के सरस्वती विद्या मंदिर, डिफेंस कॉलोनी से 75 प्रतिशत अंकों के साथ 10वीं की और इसी स्कूल से 81 प्रतिशत के साथ 12वीं की। इसके बाद डीएवी कॉलेज, कानपुर से बीए (67 प्रतिशत) किया और फिर 59 प्रतिशत के साथ एमए की डिग्री हासिल की।
अपनी सफलता का श्रेय किसको देना चाहेंगे?
मेरी सफलता मेरे माता-पिता की वजह से है, जिन्होंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार हरसंभव मेरी मदद की। भाई-बहनों के प्यार से भी मेरा हौसला बना रहा। इसके अलावा मेरे दिवगंत दादाजी और दादीजी का आशीर्वाद भी मेरे साथ रहा। भगवान की अपार कृपा तो है ही।
सिविल सेवा की तैयारी में किन बातों का ध्यान रखना जरूरी है?
तैयारी में सबसे जरूरी है कि यूपीएससी के सिलेबस को कवर करें। बुक्स को कवर न करें, टॉपिक्स को कवर करें। इसके अलावा उत्तर देते समय ध्यान रखें कि उत्तर क्रिएटिव होना चाहिए। इसके अलावा एनालिसिस करें। पैराग्राफ बड़े नहीं होने चाहिए। फैक्ट्स ठीक हों।

Friday, 11 March 2016

विकलांगता से IAS Topper तक की कहानी – Ira Singhal Success Story In Hindi




IAS – UPSC Civil Services Exams! इसकी प्रतिष्ठा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि हर वर्ष लाखों विद्यार्थी IAS Officer बनने के लिए यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (UPSC) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा देते है, लेकिन मुश्किल से .025% विद्यार्थी ही IAS Officer बन पाते है|

Civil Services Exams की Final Success Rate सामान्यत: .30% के करीब होती है जिसमें से भी सबसे प्रतिष्ठित Indian Administrative Services की Success Rate सामान्यत: .025% से भी कम होती है|
लेकिन जिनके हौसले बुलंद होते है, वे मुश्किलों से डरते नहीं और सफलता को उनके आगे झुकना ही पड़ता  है|

UPSC Civil Services Exam 2014 के नतीजे कुछ खास रहे क्योंकि पहले 4 स्थानों पर लड़कियों ने बाजी मारी और उसमें से भी पहले स्थान पर एक ऐसी लड़की सफल हुई, जिसका 60% शरीर विकलांग है|
Ira Singhal ने UPSC Civil Service Exams 2014 में सर्वोच्च स्थान हासिल कर यह साबित कर दिया है कि मेहनत और बुलंद हौसलों के आगे विकलांगता बहुत कमजोर है|

इरा सिंघल को अपनी विकलांगता के कारण कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी|
इरा सिंघल ने 2010 में ही सिविल सेवा परीक्षा पास कर ली थी और वे Indian Revenue Service – IRS पद पर नियुक्ति की हकदार थी लेकिन शारीरिक रूप से विकलांग होने के कारण डिपार्टमेंट ने उनकी नियुक्ति पर रोक लगा दी| लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और उन्होंने Central Administrative Tribunal (CAT) में मामला दर्ज कराया |
CAT का फैसला IRA Singhal के पक्ष में आया और उन्हें Assistant Commissioner of Customs and Central Excise Service (IRS) पर नियुक्त किया गया|

कई मुसीबतों के बावजूद इरा सिंघल ने प्रयास जारी रख और फिर से सिविल सेवा की परीक्षा दी| उन्होंने 2014 Civil Service Exam में Top कर, फिर से यह साबित कर दिया कि भले ही वे शारीरिक रूप से थोड़ी कमजोर है लेकिन मानसिक रूप से वे बेहद शक्तिशाली है|

इरा सिंघल महिलाओं, बच्चों और शारीरिक रूप से असक्षम लोगों के कल्याण के लिए कार्य करना चाहती है|
आज हमें इरा सिंघल जैसे लोगों पर गर्व होता है, क्योंकि ऐसे लोग हर बार यह साबित कर देते है कि – नामुनकिन कुछ भी नहीं – Nothing is Impossible| Ira Singhal ने यह साबित किया है कि उनके बुलंद हौसलों के आगे मुसीबतें और विकलांगता बहुत कमजोर है|